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गुरुवार, 13 सितंबर 2018

तिल की फसल में कीट व रोग से बचाव,Pest and disease prevention in sesame crop

        
            
        नमस्कार दोस्तों एग्रीटेक गुरुजी के एक और नए ब्लॉग में आपका हार्दिक स्वागत है दोस्तों आज की इस पोस्ट में हम बात करेंगे तिल्ली में लगने वाले कीट और रोग के बारे में

             ■तिल की फसल का रोगों व कीटों से बचाव■
              
            •तमाम तिल उगाने वाले देशों में भारत का नाम सब से ऊपर है, भारत के राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक सूबों में बड़े पैमाने पर तिल बोया जाता है. भारत में सभी मौसमों में तिल लगाया जाता है. दुनिया में तिल की मांग तेजी से बढ़ रही है. तिल में सेहत सुधारने के सभी गुण मौजूद हैं. इस में उच्च गुणवत्ता का प्रोटीन व जरूरी अमीनो अम्ल मौजूद होते हैं, जो बुढ़ापा रोकने में मददगार होते हैं. तिल के तेल को तेलों की रानी कहा जाता है, क्योंकि इस में त्वचा निखारने और खूबसूरती बढ़ाने के गुण मौजूद होते हैं. तिल की फसल में भी कई रोग व कीट लग जाते हैं, जिस से इस के उत्पादन व गुणवत्ता पर काफी असर पड़ता है
                 ■तिल के खास रोग■
                •फाइटोफ्थोरा अंगमारी•
          •यह रोग ‘फाइटोफ्थोरा पैरासिटिका’ नामक फफूंद से होता है. सभी आयु के पौधों पर इस रोग का हमला हो सकता है, पर पुष्प अवस्था तक पौधे इस की ज्यादा चपेट में आते हैं. शुरू में यह रोग जमीन की सतह के साथ पौधों के तनों पर नम काले दागों के रूप में दिखाई पड़ता है. इस से तनों पर काली धारियां बन जाती हैं. रोग ज्यादा फैलने से पौधों की मौत हो जाती है.
इलाज

          


             • एक खेत में लगातार तिल की बोआई न करें.
             • बोआई के लिए अच्छी, रोग रहित व रोगरोधी किस्म का चुनाव करना चाहिए
             • संक्रमण रोकने के लिए बोआई से पहले 0.3 फीसदी थीरम, केप्टान या रिडोमिल से बीजोपचार करें.
            
             •रोग के लक्षण दिखाई पड़ते ही फसल पर मैंकोजेब 0.2 फीसदी या कापर          
        आक्सीक्लोराइड 0.3 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए.
                 ■तना व मूल विगलन ■
    
             • यह रोग ‘मैक्रोफोमिना फैजियोलिना’ कवक से होता है. रोगग्रस्त पौधे की जड़ व तने भूरे रंग के हो जाते हैं. जब जमीन की सतह के पास इस का संक्रमण होता है, तब अचानक पौधे मुरझाने लगते हैं. पौधे का संक्रमण वाला भाग काले रंग का हो जाता है और कोयले जैसा दिखाई देने लगता है. रोगी पौधे को ध्यान से देखने पर काले दाने दिखाई देते हैं
         •रोगी पौधे जल्दी पक जाते हैं और उत्पादन घट जाता है.
इलाज
         • कम से कम 2-3 साल का फसलचक्र अपनाएं जिस में धान, मक्का, गेहूं आदि फसलें शामिल करें.
         • रोगग्रस्त खेत के अवशेषों को जला कर खेत की सफाई करें.
         • बोआई से पहले बीजों को कार्बंडाजिम 0.1 फीसदी और थीरम 0.2 फीसदी या ट्राइकोडर्मा विरिडि 0.4 फीसदी से उपचारित करें
          • ट्राइकोडर्मा विरिडि मित्र फफूंद 2.5 किलोग्राम गोबर की खाद में मिला कर बोआई से पहले खेत में डालने से रोग में कमी होती है.
          • तिल व मोठ की मिश्रित खेती से रोग कम होता है.
           
           
       

                             ■सरकोस्पोरा पत्ती धब्बा■
      
       •इस रोग से बचाव के लिए स्वस्थ बीजों से बोआई करें.
       •खेत में पौधों के रोगी अवशेषों व खरपतवारों को न रहने दें.
                  •फसलचक्र अपनाएं•
         • रोग की शुरुआती अवस्था में पत्तियों पर 0.05 फीसदी कार्बंडाजिम या 0.2 फीसदी मैंकोजेब घोल का छिड़काव करें
          •आल्टरनेरिया पत्ती धब्बा (झुलसा)  यह रोग ‘आल्टरनेरिया सिसेमी’ कवक से होता है. इस के असर से पत्तियों पर छोटे व भूरे धब्बे पड़ जाते हैं और बाद में पत्तियां झड़ जाती हैं.
इलाज
          •स्वस्थ व प्रमाणित बीजों से बोआई करें.
         
          • ऊपर बताई गई विधि से बीजोपचार करें और फसलचक्र अपनाएं
          •रोग के लक्षण दिखाई देते ही मैंकोजेब 0.2 फीसदी या आइप्रोडियान 0.1 फीसदी या कार्बंडाजिम व मैंकोजेब 0.1 फीसदी का छिड़काव करें
              ■छाछिया (पाउडरी मिल्ड्यू) ■

          •यह रोग ‘एरीसायफी ओरोंटाई’ या ‘एरीसायफी सिकोरेसिएरम’ कवक से होता है. पत्तियों व पौधों के सभी ऊपरी भागों पर रोग के लक्षण सफेद चूर्ण के रूप में दिखाई पड़ते हैं. रोगी पत्तियां झड़ जाती हैं. बीज अधपके रहजाते हैं. पौधा पीला व कमजोर हो जाता है.
लाज
फूल खिलने से फली बनते समय तक यदि रोग के लक्षण दिखाई पड़ें, तो सल्फेक्स (घुलनशील गंधक) 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के मुताबिक 10 दिनों बाद दोबारा छिड़काव करें.
                  
                   ■बैक्टीरियल ब्लाइट■
               •यह रोग ‘जेंथोमोनास सिसेमी’ और ‘स्यूडोमोनास सिसेमी’ नामक जीवाणुओं द्वारा होता है. रोग के लक्षण पत्तियों पर अनियमित छोटे धब्बों के रूप में दिखते हैं, जो बाद में तादाद में बढ़ते हैं और भूरे रंग के हो जाते हैं. वातावरण में अधिक तापमान होने और बारबार बौछारों वाली बारिश होने से यह रोग महामारी बन जाता है.
                      ✔इलाज✔
          •बोआई के लिए जीवाणु रहित बीजों का इस्तेमाल करें
          • रोगी पौधों के अवशेषों व खरपतवारों को नष्ट कर दें. बीजों को स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 0.02 फीसदी घोल में 2 घंटे डुबो कर सुखाने के बाद बोआई करें.
           •रोग की शुरुआत में स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 0.01 फीसदी घोल का छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर जरूरत के मुताबिक करें.
            • रोगरोधी किस्मों का इस्तेमाल करें.
पर्णभित्ता (फिलोडी) : यह रोग ‘फाइटोप्लाज्मा’ जीवाणु से होता है. रोगी पौधों के पुष्पांग हरी पत्तियों जैसे हो जाते हैं. प्रभावित पौधे गुच्छों  में छोटीछोटी पत्तियां उत्पन्न करते हैं.
इलाज
             •खेतों को खरपतवार नष्ट कर के साफ रखें
             •रोगी पौधे दिखाई पड़ते ही उखाड़ कर नष्ट कर दें
           
             •दक्षिण भारत में फसल को जल्दी बोना ठीक रहता है, जबकि उत्तर भारत में फसल को देर से बोना फायदेमंद होता है.* बोआई के 25 से 40 दिनों बाद फसल पर मिथाइल डिमेटान या क्यूनालफास (1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी) के घोल का छिड़काव करें
          
                  ■पर्ण कुंचन (लीफ कर्ल)■
            •यह रोग ‘निकोटियाना वायरस 10’ नामक विषाणु से होता है. शुरू में संक्रमित पौधों की पत्तियां नीचे की तरफ मुड़ जाती हैं. निचली सतह पर शिराएं मोटी हो कर उभर जाती हैं. बाद में संक्रमित पौधे छोटे रह जाते हैं और बिना फलियां बने ही नष्ट हो जाते हैं
इलाज
             •यह रोग वायरस जनित है और ‘बेमेसिया टेबेसाई’ नामक सफेद मक्खी से फैलता है, इसलिए खेत में रोगी पौधे दिखाई देते ही उन्हें नष्ट कर दें और मिथाइल डिमेटान (1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी) के घोल का छिड़काव करें.
         खरपतवार नष्ट कर के खेत साफ रखें
          
            •रोगरोधी किस्मों का प्रयोग करें•
         •तिल के खास कीट तिल पत्तीमोड़क व फलीछेदक (एंटीगेस्ट्रा कैटालुनालिस)  इस की सूंडि़यां कोमल पत्तियों को खाती हैं और पत्ती की भीतरी जाली छोड़ जाती हैं. यह क्रिया फसल की शुरुआती अवस्था में होती है. बाद में सूंडि़यां फूलों के भीतरी भाग को खाती हैं. ये फली छेद कर पके बीजों को भी खाती हैं
                      
                             ■इलाज■
            •बोआई के 35 दिनों बाद क्यूनालफास 25 ईसी की 1.5 लीटर मात्रा पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कें. फिर 45 दिनों की अवस्था पर नीम के तेल की 10 मिलीलीटर मात्रा 1 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कें. तिल के साथ मूंग की मिश्रित खेती से तिल में पत्तीछेदक व फलीछेदक कीटों का हमला कम होता है
             ■तिल गाल मक्खी(एस्फोनडाइलिया सिसामी)■ 
        
         •यह फूल के भीतरी भाग को खाना शुरू करती है और बाद में फूल के सभी भागों को नष्ट कर देती है. गाल मक्खी की लटों के कारण फलियां फूल कर गांठ का रूप ले लेती हैं.
      
                    ✔इलाज✔
             •मैलाथियान 5 फीसदी  चूर्ण या मिथाइल पैराथियान 2 फीसदी चूर्ण 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकें. पानी की सुविधा वाले इलाकों में कारबेरिल 50 फीसदी घुलनशील चूर्ण 0.1 फीसदी या मोनोक्रोटोफास 0.04 फीसदी के घोल का छिड़काव करें
       
     ■तिल हाकमाथ (एकरोनसिया स्टीक्स)■
      •यह तिल का प्रमुख कीट नहीं है  यह तिल की पत्तियों को खाता है और पौधे की सभी पत्तियों को नष्ट करता है. जब फसल पकती है, तब से पूरे मौसम तक यह कीट सक्रिय रहता है
                
                         ■इलाज■
             •जब इस कीट का हमला दिखाई पड़े तो कारबेरिल या मोनोक्रोटोफास ऊपर बताए अनुसार छिड़कने से बचाव हो जाता है यह कीट दिखने में बहुत बड़ा होता है
    •बिहार रोमयुक्त सूंड़ी (डाइक्रिसिया आबलिगा)  इस के लारवे सभी पौधों पर आक्रमण करते हैं इस की सूंडि़यां दूसरे पौधों पर जा कर केवल तने को छोड़ कर सभी भागों को नष्ट कर देती हैं. उत्तर भारत में सितंबरअक्तूबर महीनों के दौरान यह कीट ज्यादा घातक हो जाता है
            
                       ✔इलाज✔
        •कीटनाशी क्यूनालफास या मोनोक्रोटोफास द्वारा ऊपर बताए तरीकों से इस की भी रोकथाम की जाती है


      
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